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Tuesday, March 3, 2015

उँची सरहदों में उलझा इश्क़

उँची सरहदों में उलझा इश्क़



उस दिन की उलझी सी उजली धूप में
पीपल की छाओ तले
कुछ खतो की जमावट थी
काले बादल कभी धूप को पूरा सा ना होने दे पाए
शायद वो आसमान की उलझन, बरखा की आहट थी
बारिश से पहले आँधी का आना
जैसे एक इशारा था
उन खतो के लिए, जिनके कोनो से अरसो से किसी ने मिट्टी को नहीं उतारा था
दादी की दो साल की पोती खेलती खेलती उन खातो के किनारे से जा टकराई
हाथ में खातो को लिए उनका जहाज़ ब्नाकर लाई
दादी ने खत खोलकर देखा तो दादा जान का खत था, 1946 के ज़माने का
जब, ब्याह के बाद ,दादा लाहोर में गहनो का काम किया करते थे
और दादी अमृतसर रहतीं थी
वही वक़्त है यह, जब 'रावी, बेआस, चेनाब जेलम'-अमृतसर और लाहोर दनो की हुआ करती थी
खत में दादा ने अंद्रूणी शहेर लाहोर के किससे सुनाए थे
और दादी के वो  अधलिखे खत, जो उन्होने कभी ना लाहोर भेजे, उसमें  उन्होने अपने हरमिंदर साहब के अनुभव ब्ताए थे
जो इश्क़ और रिश्ता अभी तक सरहदों के अंदर था
1947 में वही रिश्ता सरहद पार हो गया
"सरहदें प्यार से उपर हैं" दुनिए के लिए यही नया सार हो गया
लकीरो से देश बात सकते हैं और ज़ाहिर है सरकारें भी
पर बिछड़े आपके भी हैं इस तरफ और उस पार बिछड़े हैं ह्मारे भी
यह आवाज़ जो मैं अपने उस पार के दोस्तो से लगा रही हू
यह उसी सार को बदलने की शउरुआत है
क्यूंकी 1947 का सबक आपकी क़बरो और हमारे पूर्वाजो की अस्तियो में तैनात है
एक गुज़ारिश है आप सबसे
लकीरो और सरकारें किताबो तक ही रहने दे
क्यूंकी जिस दिन यह लकीरे दिल नें उतार गयइ, यह उसी उलझे इश्क़ का आत्मघात है

हर रिश्ते का आत्मघात है...

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